Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥28॥

तत्ववित्-सत्य को जानने वाला; तु–लेकिन; महाबाहो-विशाल भुजाओं वाला; गुण-कर्म-गुणों और कर्मों से; विभागयोः-भेद; गुणा:-मन और इन्द्रियों आदि के रूप में प्रकृति के तीन गुण; गुणेषु– प्रकृति के गुण; वर्तन्ते-लगे रहते हैं; इति–इस प्रकार; मत्वा-जानकर; न-कभी नहीं; सज्जते-आसक्त होते हैं।

Translation

BG 3.28: हे महाबाहु अर्जुन! तत्त्वज्ञानी आत्मा को गुणों और कर्मों से भिन्न रूप में पहचानते हैं वे समझते हैं कि 'इन्द्रिय, मन, आदि के रूप में केवल गुण ही हैं जो इन्द्रिय विषयों, (गुणेषु) में संचालित होते हैं। इसलिए वे उनमें नहीं फंसते।

Commentary

गत श्लोक में अहंकार विमूढात्मा शब्दों का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है 'जो अहंकार से मोहित होकर स्वयं को शरीर मान लेते हैं और स्वयं को कर्ता समझने लगते हैं।' इस श्लोक में तत्त्ववित्तु या सत्यदर्शियों के संबंध में व्याख्या की गयी है। जिसका तात्पर्य यह है कि वे अहंकार को त्याग कर शारीरिक चेतना से मुक्त हो जाते हैं और इस शरीर से भिन्न अपने स्वरूप को जानने में समर्थ हो जाते हैं। इसलिए वे अपने लौकिक कर्मों के लिए स्वयं को कर्ता नहीं मानते और सभी क्रियाओं को तीन गुणों का परिणाम मानते हैं। ऐसे भगवतप्राप्त संत कहते हैं, " जो करै सो हरि करै, होत कबीर कबीर।" "सब कुछ भगवान करता है किन्तु लोग स्वयं को कर्ता मानने की भूल करते हैं।"

Swami Mukundananda

3. कर्मयोग

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